Sunday, June 21, 2015

ए जिन्दगी ...


"कुछ और आवारगी करने दो मुझको,
अनसुलझे सवालों को यूँ ही उलझने दो ...
मंजिल कहाँ , रात की रहगुजर कहाँ,
किस मोड़ से मुझे गुजरना है,
अभी थोड़ा और बंजारा-बंजारा मुझे फिरने दो ए जिन्दगी...
बहुत सी राते गुजरती रही हैं, बेवजह ख्वाब बुनती रही,
जाने क्यूँ आँखों में बस्ती बसती रही,
अब कुछ और बेचैनी से कतरा - कतरा मुझे उजड़ने दो ए जिन्दगी...
किस धुंध में समाया मै, किन उफानों में घिरता रहा
बन कर तूफान खुद में घुलता रहा,
अब इन सिली हवाओं में, और तिनका - तिनका मुझे बहने दो ए जिन्दगी...
जब पतझड़ सा गुजर जायेगा ये वक्त,
तू भी समझ जाएगी मुझको, हार कर नही,
खुद से ही जीतकर,
मुझको मिल जाएगी तू ए जिन्दगी"


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