Friday, December 2, 2011
फिर क्यों
तुम नही हो, फिर क्यों तुम्हारा इन्तजार है,
अकेला हूँ फिर क्यों, सुबह-शाम तुम्हारे होने का एहसास है ,
तपा हूँ सूरज कि गर्मी में बहुत, सिसका भी हूँ ओस भरी रातों में,
फिर क्यों रमी हो अंतर्मन में मेरे ,
कई बार अकेला सहमा गुजरां हूँ मोड़ो से,
जहाँ से देखा है अपने सुने घरौंदे को,
उसके दरवाजों को अब भी है इन्तजार ,
तुम्हारे पैरों कि थापों का,
खिड़कियाँ अधीर है, खुलने को तुम संग छू कर जाने वाली हवाओं से ,
फिर क्यों दरकने लगी दीवारें इसकी ,
आज भी जिक्र है तुम्हारा घर के आँगन में,
माँ पूछती है कैसी है वो,
शुन्यता में टकटकी लगाये… निरुत्तर सा रहता हूँ मै,
फिर क्यों छू जाती हो तुम हवा के झोके सी,
हाँ साथ में याद है मुझे तुम्हारा
उन छोटी छोटी बातों पर रूठना, था नही
जिनका सम्बन्ध मुझसे कोई,
फिर मेरा अध्-खुले मुंह से बुदबुदाना ,
और देख कर मेरी भीगी पलकें ,
तुम्हारा कुछ हौले से मुस्काना ,
जिवन्त कर चुके हैं ऐसे कई पल मुझको ,
जिंदगी लेती है क्यों फिर करवटें बार बार,
मेरे शब्दों को, उन दरवाजों , और घर के आँगन को,
अब भी इन्तजार है तुम्हारा,
काश धुंधला ही सही सच हो जाता वो एहसास तुम्हारा ..........
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