Sunday, June 21, 2015

ए जिन्दगी ...


"कुछ और आवारगी करने दो मुझको,
अनसुलझे सवालों को यूँ ही उलझने दो ...
मंजिल कहाँ , रात की रहगुजर कहाँ,
किस मोड़ से मुझे गुजरना है,
अभी थोड़ा और बंजारा-बंजारा मुझे फिरने दो ए जिन्दगी...
बहुत सी राते गुजरती रही हैं, बेवजह ख्वाब बुनती रही,
जाने क्यूँ आँखों में बस्ती बसती रही,
अब कुछ और बेचैनी से कतरा - कतरा मुझे उजड़ने दो ए जिन्दगी...
किस धुंध में समाया मै, किन उफानों में घिरता रहा
बन कर तूफान खुद में घुलता रहा,
अब इन सिली हवाओं में, और तिनका - तिनका मुझे बहने दो ए जिन्दगी...
जब पतझड़ सा गुजर जायेगा ये वक्त,
तू भी समझ जाएगी मुझको, हार कर नही,
खुद से ही जीतकर,
मुझको मिल जाएगी तू ए जिन्दगी"


जिद्द करने का मन ...

"जाने क्यूँ तुझसे जिद्द करने का मन करता है...
कभी कभी रूठने मनाने का मन करता है...
खुद हूँ कड़ी धूप,
तुम बादल की छाँव में सिमटने का मन करता है...
जाने क्यूँ तुझसे अब बातें करने का मन करता है...
बहुत सी हैं अनकही तस्वीरे सामने मेरेे,
अब उनमे बन कर रंग समाने का मन करता है...
कुछ तुम भी सोचते काश कभी,
अब बन कर गजल तेरे लब्जों में गुनगुनाने का मन करता है...
जाने क्यूँ तुझसे जिद्द करने का मन करता है"



"मेरी पसंद"

हां मै तुम्हे पसंद करता हूँ, 
और चाहता भी हूँ ...
बेशक तुम नही जानती मेरे इन ख्यालों को,
और संजोये गए सपनो के बारे में...
तुम क्या हो, कैसी हो, कौन हो, नही जानता हूँ, 
शाम हो , रात हो, सुबह हो या फिर गुनगुनी धुप,
ये भी नही जानता...
और भी बहुत कुछ नही जानता,
की तुम्हे कब , कहां पहली बार देखा था...
कौन से वो शब्द थे जो पहली बार बोले थे..
तुम नही जानती, मै नही जानता ...
और मै ये भी नहीं जानता की,
तुम मेरे लिए धूप हो, छाँव हो, बादल हो या फिर बदलते मौसम का पतझड़ ...
तुम्हे पता चले अगर मेरी चाहत के बारे में,
तो तुम क्या सोचोगी, मै ये भी नही जानता...
जैसा की मेरा विश्वास है,
कि तुम मुझे सिरे से नकार दोगे,
भला बुरा कहो, जी भर के कोसोगे...
लेकिन मुझे फर्क नही पड़ेगा,
क्योंकि ये तो सिर्फ मै हूँ, हम नही,
तुम इसमें शामिल हो ये जरुरी नही...
लेकिन इतना जरुर जानता हूँ,
की मै तुम्हे पसंद करता हूँ,
और चाहता भी हूँ"



तुम .....

"डरता हूँ, तुम कहीं आदत न बन जाओ..
तेज धूप की तपिश से बचने की छाँव न बन जाओ...
भोर, सांझ, रात, यादें, धड़कन, साहिल और भी बहुत कुछ न बन जाओ...
डरता हूँ, तुम कही मन के घर में घरौंदा न बन जाओ"


एक कविता तुम्हारे नाम ...

"कुछ छोटी सी बातें सिमटी है , यादों में तेरी ...
सुबह शाम की छोटी छोटी आंखमिचौली, 
चाय, लंच, डिनर में लिपटे शब्द ...
कुछ सच्चे, कुछ झूठे, कुछ लोगों के साए ...
साथ नही हो तुम कभी, लेकिन बातों में है पूरा दिन साथ हमारे....
खट्टी मीठी यादों की बेरी में तुम भी समा गए दोस्त मेरे...
वो चाय, वो काफी के चैट...
खाना न खाके, खाने की बाते करना ...
मिलते तो शायद कुछ और होता, ना मिले तो बातें पूरी हुयी...
कैसा रहा दिन, क्या क्या किया, 
अगैर - वगैर जैसे मेरे उटपटांग से सवाल ...
सच कहता हूँ बहुत याद आयेंगे, मुझको वो लम्हे ...
छोड़ गए जो घरौंदे की दीवारों में अपने रंग...
कुछ छोटी सी बातें सिमटी है, यादों में तेरी"