Monday, October 10, 2011


एक अनजाने भय से,

अक्सर मै सहमा रहता हूँ ,

कहीं अकेला न पड़ जाऊ,

इसलिय यादों की नीवं को ,

मजबूत बनाने की कोशिश करता हूँ,

ये मानकर चलता हूँ ,

कोशिश में तुम भी बराबर हो , मेरे साथ,

साथ चलोगी, जानता हूँ , बहुत ज्यादा न सही ,

पर कुछ तो , वही बहुत है मेरे लिय,

किस मोड़ पर छोड़ दोगी साथ मेरा, नही जानता ,

पर रास्ते तो मोड़ के आगे भी हैं,

कैसे चल पाऊंगा, तुम्हारे बिना,

चाहता हूँ,

इसलिय तुमसे कुछ पल, कुछ निशानियाँ, कुछ यादें,

और कुछ यादों को याद करने वाली सजीवता ,

ताकि रात में किसी तारे को देख कर नम ना हो जाएँ आँखे मेरी

तुम्हारी यादें, निशानियाँ .....

अवलम्बन होगीं, मेरे लिय

मोड़ के आगे के रास्तों की मंजिल होगी .....

इसलिय दे दो कुछ पल, कुछ निशानियाँ, कुछ यादें.....

4 comments:

  1. किस मोड़ पर छोड़ दोगी साथ मेरा, नही जानता.
    पर रास्ते तो मोड़ के आगे भी हैं.
    मोड़ के आगे के रास्तों की मंजिल होगी

    क्या खूब कहा अनूप जी,
    बस यही जज्बा ज़रूरी है जीवन में.

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  2. उत्तम है अनूप बाबू, मगर यहां आपने "चलोगी" लिखकर लिंग-निर्धारण कर दिया है...भार स्पष्ट हो गया है...लगता है कोई पुरानी पीड़ा है..अगले पोस्ट में विस्तार से बताएं..

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  3. सर आप कुछ नहीं बताते लेकिन आपकी कविता काफी कुछ बयान करती है.....
    बहुत अच्छी कविता है

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